धनबाद। मानव सभ्यता के विकास में सबसे महत्वपूर्ण खोज है–कृषि। और कृषि में भी सबसे महत्वपूर्ण धान की खेती है। आदि राढ सभ्यता के जनक, राढ–संस्कृति में धान की फसल पूर्ण होने पर हर्षोल्लास पर्व के रूप में महान सांस्कृतिक और प्राकृतिक पर्व टुसु परब मनाया जाता है। जो पूरे एक माह तक चलती है।
स्वपन कुमार महतो शिक्षक सह संरक्षक , आदिवासी कुडमी युवा मंच ने बताया कि वास्तव में झारखंडी सभ्यता और संस्कृति अलिखित होने के कारण अनेक धरोहर और कालक्रम मिटते चले गए और जो बचे है वो परब त्योहारों, गीत संगीत, के रूप में जनजीवन में समाहित है। दरअसल सदियों से चौतरफा साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमणों की मार से झारखंडी संस्कृति को अनेक क्षति हुई है। अब शोध और खोज करने से अनेक तथ्यों के मूलभाव स्पष्ट हो रहे है।
राढ सभ्यता में विशेषकर कुड़मि कबीला में बारह मासे तेरह परब की प्रथा प्रचलित है–आखाइन परब, बाहा परब, सिझानअ, गाजन, सरहुल, रोहइन, जाताड़, करम, छाता, जितिया, जीहुड़, बांदना और टुसु परब। इन सभी परबों में पूरे एक माह तक चलने वाली टुसु परब का विशेष महत्व है।
टुसु क्या है–टुसु कुड़माली शब्द टुई शब्द से निकला है जिसका अर्थ सूरज का किरण है, जिससे कि नई फसल में जीवन का संचार होता है तो कहीं टुसु शब्द की उत्पति तुस से हुई है बताते है, तुस अभी भी मानभूम भाषा में चावल का छिलका को कहा जाता है। यानी टुसु धान से संबंधित परब है। भारत एक कृषि प्रधान और विभिन्न संस्कृतियों का देश है। देश के विभिन्न भागों में फसल होने की खुशी में भिन्न भिन्न तरह पूजा और उत्सव मनाकर प्रकृति को धन्यवाद देते है। झारखंड, बंगाल और उड़ीसा के कोल–कुडमी–भूमिज–संथाल–हो आदि जनजाति समुदायों में विशेषकर मनाया जाता है। जब धान की फसल काटकर कृषक घर ले आते है तो पांच धान की पौधा खेत की डिनि कुड़ (ईसान कोण) में छोड़ दिया जाता है, जिसे डिनिमाय कहा जाता है। डिनिमाय को अगहन संक्रांति के दिन कृषक दंपति द्वारा पूरे विधि विधान के साथ खेत से खलिहान में लाया जाता है। वहां गोबर से लीपा जाता है। धूप, अगरबत्ती, सिंदुर, काजल, दिया बाती आदि से डिनिमाय का सेउरन पूजन किया जाता है। इस दिन घर या कहे तो पूरे गांव में खुशी का माहौल होता है। सभी घरों में पीठा पकवान बनाया जाता है।
टुसु स्थापना – अगहन संक्रांति में कृषक घर की लड़कियां शाम के समय उसी डिनिमाय से पांच धान, अरवा चावल,गुड़ी लाडु, गोबर लाड़ू, एक गेंदा फूल, दूब घास, सिंदुर, काजल आदि देकर एक सारवा में रखकर टुसु को स्थापित और सेउरन करने की परंपरा है। प्रतिदिन एक फूल सरवा डाला जाता है और कृषक बालाओ तथा महिलाओं के द्वारा प्राकृतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, सृष्टि के गीत गाकर टुसु को जगाती है। साथ ही प्रति आठवें दिन में आठकलइया का भोग लगाकर सेउरन किया जाता है। जो पौष संक्रांति तक अनवरत चलते रहती है। टुसु परब को पौष महीना में होने के कारण पुस परब तथा मकर राशि में होने के कारण मकर परब भी कहा जाता है। इस समय एक विशेष प्रकार का पीठा बनाया जाता है जिसे पुस पीठा या उंधी पीठा कहा जाता है।
टुसु परब का समापन–इस तरह एक माह व्यापी टुसू परब का समापन पौष संक्रांति को टुसु का विसर्जन तालाब, जोड़िया और नदी में किया जाता है। इसके लिए भी जिस प्रकार कोई बेटी ससुराल जाती है वैसा ही घर में पीठा, पकवान, आठ कोलोइया बनाया जाता है। और टुसु के लिए चौड़ल (पालकी) बनाया जाता है और उस पर बैठाकर टुसु का विदाई किया जाता है। इसके लिए भी चार दिवसीय आऊड़ी (चारधोआ), चाउड़ी (गुड़ी कूटा), बाउड़ी (पीठा बनाना) और टुसु भासान किया जाता है। और इसी के साथ टुसु परब का समापन हो जाता है।
टुसु को लेकर कई कहानियां भी प्रचलित है–टुसु को लेकर कई तरह की भ्रांतियां भी फैली है। कोई इसे काशीपुर के राजकुमारी से जोड़ती है तो कोई किसी जमींदार की बेटी बताते है और कई तरह की कहानी गढ़ी जाती है। लेकिन वास्तव में टुसु धान से संबंधित परब है।