झारखंड की सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है सोहराय

सोहराय में पशुधन की की जाती है पूजा अर्चना
सोहराय पशु और मनुष्य के बीच गहरी संबंधों को करता है प्रदर्शित

गिरिडीह | झारखंड की सभ्यता और संस्कृति अत्यंत प्राचीन है। यहां मनाए जाने वाले हरेक पर्व त्यौहार का प्रकृति व पशुओं से गहरा जुड़ाव रहा है।
सोहराय पर्व झारखंड के आदिवासी बहुल्य क्षेत्र एवं ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े धूमधाम से पशुधन पर्व के रूप में मनाया रहा है।
झारखंड के अधिकांश लोग कृषि पर निर्भर है। कृषि कार्य में पशुओं का अहम योगदान होता है।अच्छे फसल की पैदावार में बैलों का विशेष योगदान होता है। उनकी मेहनत के बदौलत बेहतरीन खेती हो पाती है। इन पशुओं के साथ खुशी बांटने के लिए झारखंडी लोग यह पर्व मनाते है। सोहराय पर अपने घरों में पाले जाने वाले पालतू पशुओं और मनुष्य के बीच गहरी प्रेम को दर्शाने का कार्य करता है। इन पशुओं को लक्ष्मी माता की तरह पूजा कर अपने घर में धन्य धान्य व सुख शांति की वृद्धि की कामना पूजा अर्चना कर करते हैं।
सोहराय कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष के प्रतिपदा तिथि को मनाया जाता है अर्थात दीपावली के एक दिन के बाद पूरे झारखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। लक्ष्मी पूजा एवं सोहराय मे पशुओं को मां लक्ष्मी का स्वरूप मानकर इसकी पूजा की जाती है । घर में पाले जाने वाले पशुओं को अच्छे तरह से स्नान कर उसके शरीर व सिंग में तेल लगाए जाते हैं तथा उनके माथे में सिंदूर का तिलक लगाया जाता है। यह सिलसिला कई दिनों तक चलता है।इस अवसर पर जानवरों के रहने वाले घर गोहाल की भी विशेष सफाई की जाती है। किसानों के घरों में तैयार नई फसलों से बनने वाले पकवान सर्वप्रथम पशुओं को ही खिलाया जाता है।ग्रामीण क्षेत्र में यह प्रथाएं आज भी प्रचलित है, जो सदियों से आज भी चली आ रही है।
सोहराय के 5 दिन पूर्व से ही पशुओं को उनके शरीर व सिंग में तेल लगाने की प्रथा आज भी प्रचलित है। आधुनिकता के इस युग में इन दिनों सोहराय की लोकप्रियता ग्रामीण क्षेत्रों में भी धीरे-धीरे घटने लगी है और उसकी जगह अब दीपावली ने ले लिया है, लेकिन आज भी जनजातियों व सदानों मे इस पर्व को लेकर विशेष उत्साह देखने को मिलता है। जनजाति क्षेत्र में सोहराय के अवसर पर विशेष नृत्य संगीत का भी आयोजन किए जाते हैं। जिसमें बच्चे ,बूढ़े, महिलाएं आदि सभी मांदर की थाप पर झूमते नजर आते हैं।

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